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एक दूसरे की सेवा करो

“पृथ्वी यहोवा के ज्ञान से भर जाएगी”(यश 11:9 संदर्भ)। आज, यह आशीषित व महिमामय भविष्यवाणी हर पल सच हो रही है। परमेश्वर की इच्छा यह है कि सभी लोग पश्चाताप करके उद्धार पाएं। इस इच्छा के अनुरूप संसार का उद्धार करने के लिए ‘विश्व उद्धार आंदोलन’ तेज़ किया जा रहा है। तो, आइए हम सोचें कि अब हमें क्या करना चाहिए।

बाइबल कहती है कि परमेश्वर के लोग वे हैं जो परमेश्वर की आज्ञाओं को मानते और यीशु पर विश्वास रखते हैं।(प्रक 14:12) जब सिय्योन के सदस्य ‘आज्ञा’ शब्द के बारे में सोचते हैं, तो उनके मन में जो पहले आता है वह ‘नई वाचा की व्यवस्था’ है। परमेश्वर की आज्ञाओं में ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिनका मसीहियों को नियमित रूप से पालन करना चाहिए, और इनमें मसीहियों के सद्भाव के संदर्भ में भी शिक्षा शामिल है। परमेश्वर की महिमा करना, एक दूसरे से प्रेम करना और सेवा करना, आदि यह सब भी परमेश्वर की पवित्र आज्ञाएं हैं जिनका हम मसीहियों को अवश्य ही पालन करना चाहिए।

जो आज्ञाएं मैंने तुम्हें दी हैं उनका पालन करना सिखाओ



परमेश्वर की हर एक शिक्षा महत्वपूर्ण है, क्योंकि परमेश्वर ने इसे हमारी आत्मा के उद्धार के लिए दी है। सब का महत्व एक जैसा है। इसलिए ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि कुछ शिक्षा ज्य़ादा महत्वपूर्ण है या कुछ शिक्षा कम महत्वपूर्ण है। और परमेश्वर ने कहा है कि वचनों में कुछ न बढ़ाओ और इन में से कुछ निकाल न डालो। 2 हज़ार वर्ष पहले, यीशु इस धरती पर अपने सुसमाचार–प्रचार का कार्य समाप्त करके स्वर्ग चला गया। उस समय यीशु ने इस प्रकार कहा;

मत 28:18–20 “तब यीशु ने उनके पास आकर कहा, “स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिए जाओ और सब जातियों के लोगों को चेले बनाओ तथा उन्हें पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो, और जो जो आज्ञाएं मैंने तुम्हें दी हैं उनका पालन करना सिखाओ।...”

यीशु ने ऐसा कहा है कि मेरे वचनों में से कुछ भाग का नहीं, लेकिन सब का पालन करना सिखाओ। इस वचन के अनुसार हम बाइबल में लिखे हुए सभी वचनों को सिखाते हैं, पढ़ते हैं और उनका पालन करते हैं।

उनमें से ऐसी शिक्षा है कि ‘दूसरे के सेवक बनो’। यह भी मसीह की ऐसी अनमोल शिक्षा है जिसे हमें सब जातियों के लोगों को चेले बनाकर और उन्हें पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा देकर सिखाना चाहिए। परमेश्वर ने बहुत बार क्यों ऐसा कहा है कि ‘दूसरों की सेवा करो’, ‘स्वयं को नीचा करो’, ‘दूसरों का दास बनो’? क्यों उसने चेलों के सामने स्वयं को नीचा करके सेवा करने का आदर्श दिखाया?, और प्रेरित पौलुस ने सब से स्वतन्त्र होने पर भी क्यों अपने आप को सब का दास बना दिया? हमें इनके कारण पर ध्यान देना चाहिए।

माता की आखिरी 13 वीं शिक्षा है कि ‘परमेश्वर भी अपनी सेवा–टहल कराने नहीं वरन् सेवा करने आए। जब हम अपनी सेवा करवाने की इच्छा रखे बिना एक दूसरे की सेवा करते हैं, तब परमेश्वर प्रसन्न होंगे।’ आइए हम सेवा के संबंध में माता की शिक्षा को याद रखें, और पूरी तरह से सेवक होने के सद्गुण का अभ्यास करें।

प्रकृति में दिखाई दिया, सेवक होने का सद्गुण



कुछ दिन पहले, मैंने एक लेख पढ़ा जो एक सदस्य ने लिखा था। यह पढ़कर मैं अभिभूत हो गया और मुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में फिर से सोचने का अवसर मिला।

केनया के नैरोबी शहर में एक हाथी संरक्षण केंद्र था, जिसमें हाथियों के 2 वर्ष के बच्चे हाथी एकत्रित थे, जिन्होंने अपनी माता को खोया था। उन्हें जंगल के अनुकूल बनाने के लिए वहां उनकी देखभाल की जाती थी। वहां के हाथी खुद नए–नए हाथियों का बहुत ख्याल रखते थे कि वे नए हाथी दूसरों से मिलते जुलते रहें, और वे एक दूसरे की मदद करते हुए अपने से छोटे या बीमार हाथियों की देखभाल करते थे।

हम हाथियों की ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को बारीकी से सोचें कि हाथी झुण्ड के छोटे व कमज़ोर हाथियों की एकजुट होकर मदद करते हैं, जिससे हम समझ सकेंगे कि क्यों परमेश्वर ने हमें सेवक होने और स्वयं को नीचा करने के लिए कहा है। चाहे वे पशु का झुण्ड हों, फिर भी परमेश्वर ने उन्हें अनुग्रहपूर्ण हृदय का सद्भाव दिया है। क्योंकि इसमें परमेश्वर की इच्छा है कि हम उसके उदाहरण से सीखें।

मैं तो पहले जानता था कि हाथी सिर्फ़ बहुत बड़ा और ताकतवर पशु है। लेकिन हम हाथी से बहुत सी बातें सीख सकते हैं। हाथी लोगों पर अधिकार जताने के लिए अपनी बड़ी ताकत का उपयोग नहीं करता, लेकिन दूसरों की सेवा करने और देखभाल करने के लिए इसका उपयोग करता है। वास्तव में हमें ऐसा ही करना चाहिए। सिय्योन में जो ऊंचे पदवाले अगुवे हैं, उन्हें भाई–बहनों से अपने समान प्रेम करना चाहिए, उनकी देखरेख करनी चाहिए, और कमज़ोर सदस्यों को साथ स्वर्ग जाने के लिए मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए।

इस लेख में यह वाक्य भी लिखा था कि ‘हाथियों के झुण्ड में नेता को पहचानना बहुत आसान बात है। हाथियों का नेता वही हाथी है जो सबसे ज्य़ादा दूसरे हाथियों की देखरेख व मदद करता है।’ सम्पूर्ण समर्पण भाव से जो नम्रता एवं दीनतापूर्वक सेवा टहल करता है, वही हाथियों के झुण्ड का नेता है। यह सचमुच हमारे लिए अर्थपूर्ण शिक्षा है।

परमेश्वर ने सभी प्राकृतिक वस्तुओं की रचना अपनी इच्छा के अनुसार की।(प्रक 4:11) इसलिए हर रचना के पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है। हम हाथी के उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं कि परमेश्वर के लिए सबसे ऊंची व उत्तम सन्तान सिर्फ़ अधिकार जताते हुए आदेश देने वाली नहीं है, परन्तु वही है जो दूसरों की सेवा टहल करते हुए परमेश्वर के वचन के प्रति पूर्ण वफ़ादार होती है।

पूरे ब्रह्माण्ड में जो सबसे ऊंचा व महान है, वह परमेश्वर है। परमेश्वर चाहता है कि वह अपनी प्रिय सन्तान को स्वर्ग में राज–पदधारी याजकों के रूप में नियुक्त करे।(1पत 2:9) इसके लिए, इस धरती पर परमेश्वर हमें अच्छे तरीक़े से सिखाता–सुधारता है, ताकि हम समर्पण व बलिदान की भावना से एक दूसरे की सेवा टहल एवं देखरेख करें और परमेश्वर के समान बनें।

यदि परमेश्वर ने चाहा होता कि हम स्वर्ग में सबसे नीचे हों, तो उसने ऐसा नहीं कहा होता कि ‘स्वयं को नीचा करो’, ‘दूसरों का दास बनो’। परमेश्वर ने हमें ‘दूसरों की सेवा टहल’ करने के लिए इसलिए कहा है कि हम स्वर्ग में हमेशा के लिए ऊंचे हों। इसलिए ऐसी आज्ञा देने में परमेश्वर का प्रेम है।

मसीह जिसने सेवक होने का आदर्श दिखाया



यरूशलेम माता ने शिक्षा दी है कि ‘जब हम अपनी सेवा करवाने की इच्छा रखे बिना एक दूसरे की सेवा करते हैं, तब परमेश्वर प्रसन्न होंगे।’ पिता की शिक्षा में भी और माता की शिक्षा में भी सेवक होने की शिक्षा अवश्य ही शामिल रहती है। आइए हम फिर से मसीह की शिक्षा को देखें कि जो दूसरों का सेवक होता है, वह स्वर्ग में सबसे बड़ा है।

लूक 22:24–27 “उनमें एक विवाद भी उठ खड़ा हुआ कि हम में से सब से बड़ा कौन समझा जाता है। उसने उनसे कहा, “गै.रयहूदियों के राजा उन पर प्रभुता करते हैं; और जिनको उन पर अधिकार होता है, वे ‘परोपकारी’ कहलाते हैं। परन्तु तुम में ऐसा न हो। वह जो तुम में सब से बड़ा है, वह सब से छोटा बने; और जो प्रमुख है, वह सेवक के समान बने। क्योंकि बड़ा कौन है, जो भोजन करने बैठा है, या वह जो भोजन परोसता है? क्या वह नहीं जो भोजन करने बैठता है? परन्तु मैं तुम्हारे मध्य में परोसने वाले के समान हूं।”

सेवक होने का आदर्श परमेश्वर ने स्वयं हमारे सामने दिखाया है। हम परमेश्वर के बीज हैं, तो हमें मसीह के ऐसे सद्गुण को अपनाना चाहिए। बहुत लंबे समय से परमेश्वर हमें सेवक होने का निवेदन करता आया है।

तो आइए हम मसीह के आदर्श व शिक्षा का पालन करके दूसरों का सेवक बनने की कोशिश करें। दूसरों का सेवक होने का मतलब दूसरों के लिए बिना किसी शर्त के हमेशा दास रहना नहीं है, लेकिन दूसरों की देखरेख करना है। सिय्योन में नए सदस्यों व कमज़ोर विश्वास वालों पर ध्यान देना और उन्हें उसकी जानकारी देना, जो उन्हें मालूम नहीं है, आदि मदद देनी चाहिए, ताकि नए सदस्य जल्दी परमेश्वर का एहसास करके स्वर्ग के राज्य की आशा कर सकें।

केवल चर्च में नहीं, पर परिवार में, समाज में और पड़ोस में भी, हमें कमज़ोर लोगों की देखरेख करनी चाहिए और एक दूसरे की देखभाल करनी चाहिए। ऐसा विचार परमेश्वर की ओर से नहीं है कि ‘मैं ऊंचा पद वाला हूं, तो मेरा आदेश सुनना चाहिए।’ या ‘मैं उससे पहले चर्च आया और मैं उसका अगुवा हूं, तो उसे मेरी सेवा करनी चाहिए।’

मत 20:20–28 “तब जब्दी के पुत्रों की माता अपने पुत्रों के साथ उसके पास आई और दण्डवत् करके निवेदन करने लगी। यीशु ने उस से कहा, “तू क्या चाहती है?” वह बोली, “आज्ञा दे कि तेरे राज्य में मेरे ये दोनों पुत्र एक तेरे दाहिने और एक तेरे बाएं बैठे।”... यह सुनकर दसों चेले उन दोनों भाइयों पर क्रुद्ध हुए। परन्तु यीशु ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, “तुम जानते हो कि गै.रयहूदियों के अधिकारी उन पर प्रभुता करते हैं, और उनके बड़े लोग उन पर अधिकार जताते हैं। तुम में ऐसा न हो। जो कोई तुम में बड़ा बनना चाहे वह तुम्हारा सेवक बने, और जो तुम में प्रधान होना चाहे वह तुम्हारा दास बने– जिस प्रकार मनुष्य का पुत्र भी अपनी सेवा–टहल कराने नहीं वरन् सेवा करने और बहुतों के छुटकारे के मूल्य में अपना प्राण देने आया।”

यीशु ने शिक्षा दी है कि संसार का हाकिम या प्रतिष्ठित व्यक्ति तो लोगों को वश में रखने और उन पर दबाव डालने के लिए अधिकार का उपयोग करता है, लेकिन परमेश्वर के लोगों को ऐसानहीं करना है। यही फ़र्क. है संसार की ओर मोड़ने वाले और स्वर्ग की ओर मोड़ने वाले के बीच में।

दूसरों पर अधिकार जताना तो इस संसार की बात है। हमें संसार के अनुरूप नहीं करना चाहिए। हम संसार में रहने के दौरान अनजाने में घमण्ड, स्वार्थ, आदि सांसारिक आदतें पालते थे। लेकिन अब परमेश्वर में उन सभी चीज़ों को त्याग देना चाहिए और उसके बदले परमेश्वर की चीज़ों को अपना लेना चाहिए। हम जो सत्य को पहले ग्रहण कर चुके हैं, जब पिता और माता की शिक्षाओं का अनुग्रहपूर्वक पालन करेंगे, तब पूरे विश्व से उमड़ आ रहे सिय्योन के सदस्य भी परमेश्वर की शिक्षाओं को सही तरीक़े से सीख सकेंगे।

जो सेवा करता है, वह स्वर्ग में सबसे बड़ा है



आत्मिक तौर पर देखें, तो यह पृथ्वी ‘शरण नगर’ जैसा बन्दीगृह है, जहां स्वर्ग में पाप करने वाली आत्माएं बन्दी रहती हैं।(गिन 35:1–28; इब्र 11:13–16 संदर्भ) बन्दीगृह में यह साधारण सी बात है कि पापी ऊंचे पद पर बैठने के लिए अपनी ताकत और अधिकारों का कड़ाई से इस्तेमाल करता है।

लेकिन स्वर्ग की रीति रिवाज ऐसे नहीं है। अनुग्रह से भरपूर स्वर्ग में और सिय्योन में रहने वाली सन्तान को एक दूसरे की देखभाल व रखवाली प्यार से करनी चाहिए। क्योंकि जो भाई–बहनों की प्रेम से रखवाली व देखभाल करते हैं, वे स्वर्ग में राज–पदधारी याजक हो सकते हैं, परमेश्वर ने हमें एक दूसरे की कठिनाई की चिन्ता करने के लिए कहा है, और उसने हमें परमेश्वर की भेड़ों के झुण्ड की रखवाली करने की ज़िम्मेदारी दी है।

यीशु ने चेलों को सेवक होने के लिए बार–बार कहा।

मत 18:4 “जो कोई अपने आप को इस बच्चे के समान दीन बनाता है वही स्वर्ग के राज्य में सब से बड़ा है।”

यदि हम जानना चाहें कि सिय्योन के सदस्यों में कौन सबसे बड़ा व उत्तम है, तो उसे खोजें जो भाई–बहनों की सबसे ज्य़ादा सेवा करता है। परमेश्वर ऐसे सदस्य का एक सबसे ऊंचे वाले व्यक्ति के रूप में मूल्यांकन करता है, और उसे आशीष देता है।

आपने ‘कुमार और भिखारी’ नाम की किताब शायद पढ़ी होगी। कहानी का सारांश है; थोड़े समय के लिए कुमार और भिखारी की स्थिति व वर्ग बिल्कुल बदल गया, लेकिन उन्होंने बाद में अपनी पहली स्थिति व वर्ग वापस पा लिया। भिखारी की स्थिति कुमार की बनी थी, लेकिन भले ही उसने कुमार सा व्यवहार कितनी बार किया हो, फिर भी वह कुमार के योग्य नहीं बन सका। परन्तु कुमार ने, जिसने भिखारी जैसा घटिया जीवन जिया था, स्वयं प्रजाओं के दुखों का एहसास किया और उनकी तकलीफ़ का अनुभव किया, जिससे उसने बाद में उत्तम राजा बनकर उदार नीति से शासन किया।

कुमार और भिखारी के समान, हमारी स्थिति भी थोड़े समय के लिए बदल गई है। पृथ्वी पर की हमारी स्थिति स्वर्ग की हमारी स्थिति से बिल्कुल अलग है। आज हमारा स्वरूप उस स्वरूप से अलग है जिसको हमने स्वर्ग में पहले धारण किया था। लेकिन हम पृथ्वी पर थोड़े समय का दुख सहने के द्वारा और नीचे होने के द्वारा, बहुत सी चीज़ें सीख सकते हैं। इसलिए हमारे लिए परमेश्वर ने इस पृथ्वी पर आकर स्वयं हमें बलिदान, नम्रता, सेवा करने का उदाहरण भी दिखाया है।

हम बाइबल के सत्य का प्रचार कर रहे हैं। लेकिन बाइबल में सेवा की शिक्षा की अवहेलना करते हुए, यदि हम सिर्फ़ आदेश देना पसंद करते हुए राजा की तरह व्यवहार करने की चाह रखें, तो यह प्रकट करेंगे कि हम स्वयं को पापी नहीं मानते और हम अभी तक अपराधी के स्वभाव के हैं। हम पहले स्वर्गदूत थे, लेकिन स्वर्ग में पाप करने के कारण अपराधी बन गए और स्वर्ग से निकाल दिए गए। इसलिए इस संसार में हमें अपने पापों की कीमत इस तरह चुकानी चाहिए, जैसे हमें थोड़े समय के लिए अत्याचार व दुख भोगना चाहिए और क्रूस की तरह अपने–अपने बोझ को उठाना चाहिए। इन सभी चीज़ों को सहते हुए, जो कोई सदस्यों की मदद करता है, उनकी देखभाल करता है और बच्चों की तरह स्वयं को नीचा करता है, वह स्वर्ग में सबसे बड़ा होगा। लेकिन इस पृथ्वी पर जो अपनी सेवा टहल करवाता है, वह स्वर्ग में जाकर सबसे नीचा होगा।

इसलिए अपनी सेवा टहल करवाने के बजाय, क्या यह अच्छा नहीं है कि स्वयं को नीचा करने के द्वारा और सदस्यों की रखवाली व सेवा टहल करने के द्वारा स्वर्ग में जाकर हमेशा के लिए राज–पदधारी याजक बनें? परमेश्वर हमें महसूस कराता है कि जो बच्चों की तरह स्वयं को नम्र करके हमेशा भाई–बहनों की देखभाल और रखवाली में लगे रहता है, और जो सदस्यों के मन की थाह लेकर उनकी चिन्ता करता है, वह स्वर्ग में सचमुच सबसे बड़ा होगा।

वह जो अपने आप को दीन करेगा सम्मानित किया जाएगा



लूक 14:7–11 “... जब कोई तुझे विवाह के भोज में बुलाए तो सम्मानित स्थान पर न बैठना, कहीं ऐसा न हो कि उसने तुझ से अधिक सम्मानित पुरुष को आमन्त्रित किया हो, और वह जिसने तुम दोनों को आमन्त्रित किया, आकर तुझ से कहे, ‘उसे बैठने दे,’ तब अपमानित होकर तुझे अन्तिम स्थान पर बैठना पड़े। पर जब तू आमन्त्रित किया जाए तो जाकर नीचे स्थान पर बैठना जिस से वह जिसने तुझे आमन्त्रित किया, आकर तुझ से कहे, ‘मित्र, आगे बढ़कर बैठ।’ तब उन सब की दृष्टि में जो तेरे साथ बैठे हों, तू सम्मानित होगा। क्योंकि प्रत्येक जो अपने आपको ऊंचा करता है, वह नीचा किया जाएगा; और वह जो अपने आप को दीन करेगा सम्मानित किया जाएगा।”

परमेश्वर ने स्वयं नम्र होने का और सेवा करने का उदाहरण दिखाया है। हम उस परमेश्वर का आदर करते हैं और उसकी सभी शिक्षाओं का पालन करते हैं। तब हमें ऐसी सन्तान होना चाहिए जो दैनिक जीवन में सेवा की शिक्षा को लागू करने के द्वारा पिता और माता को प्रसन्न करती हैं।

सिय्योन अनुग्रह से भरपूर एक ऐसा स्थान है, जहां परमेश्वर हमारे साथ है और हमें आशीष देता है। चाहे स्वर्गदूत के लिए हो, चाहे परमेश्वर के लिए हो, सिय्योन में जो सबसे ज्य़ादा सेवा टहल करता है, वह सबसे उत्तम है। सभी सदस्य सब्त मनाते हैं और फसह मनाते हैं, लेकिन उनमें से जो सबसे अनुग्रहपूर्ण सेवा टहल करता है, वह परमेश्वर से सबसे बड़ी आशीष पाएगा। इसलिए जब कभी मैं इसे सोचता हूंं, तो मुझे डर लगता है। और मुझे तब अफ़सोस होता है, जब मैं अपने पिछले समय को याद करते हुए यह सोचता हूं कि ‘क्या स्वर्ग का राज–पदधारी याजक होने के लिए मुझमें कमी है?’, ‘मुझे पूरी मेहनत से दूसरे की और ज्य़ादा सेवा करनी है, लेकिन सिय्योन में सेवा की शिक्षा का पालन ठीक से न करते हुए क्या मैंने सिर्फ़ नेता की तरह व्यवहार किया है?’

पूरे विश्व से बहुत से लोग सिय्योन की ओर तेज़ी से वापस दौड़ते आ रहे हैं। मैं आपसे, जो सिय्योन में पहले बुलाए गए हैं, निवेदन करता हूं कि नए सदस्यों के सामने अनुग्रहपूर्ण आदर्श दिखाएं और उनकी सेवा टहल व देखभाल करें, ताकि नए सदस्यों के लिए सिय्योन में अच्छी तरह से रहने के लिए अनुकूल माहौल बन जाए। और आशा करता हूं कि जो अभी तक सत्य को नहीं जानते, उन्हें पूरी मेहनत से नई वाचा के सत्य को सुनाएं, और सबसे पहले सारी महिमा परमेश्वर को दें। आइए हम सारी शिक्षाएं, जो हमारे उद्धारकर्ता एलोहीम परमेश्वर ने दी हैं, हृदय–पटल पर लिख लें, और सेवा की शिक्षा का पालन करने से स्वर्ग के राज्य में सब राज–पदधारी याजक बनें।