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मेरी इच्छा के अनुसार और पिता की इच्छा के अनुसार
दक्षिण कोरिया को हाल ही में बारिश की कमी होने के कारण सूखे जैसे हालात का सामना करना पड़ा। धान के खेत के विशाल क्षेत्र में सूखे के कारण कछुए के कवच की जैसी दरारें पड़ने और तालाबों का जलस्तर तेजी से कम होने की खबरें हर दिन अखबारों और न्यूज चैनलों में जगह पाती थीं।
जब मैंने सूखे के बारे में खबर सुनी, मेरे मन में अचानक यह विचार आया, ‘लोग उत्सुकता से वर्षा का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन वे वर्षा देने वाले परमेश्वर पर क्यों विश्वास नहीं करते और उनके वचनों का पालन नहीं करते?’ यदि परमेश्वर वर्षा नहीं बरसाते, तो कौन पृथ्वी पर पहाड़ों, मैदानों और खेतों में इतनी बड़ी मात्रा में पानी प्रदान कर सकता होगा है? मनुष्य सोचते हैं कि वे अपने आप ही सब कुछ कर सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकते। चाहे एक मनुष्य खेती बाड़ी के काम में कितना ही अनुभवी और कुशल क्यों न हो, लेकिन यदि वर्षा नहीं होती, वह किसी भी फसल को पाल–पोसकर बड़ा नहीं कर पाएगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, हम इसका दुबारा एहसास कर सकते हैं कि हमारे परमेश्वर सच में महान हैं क्योंकि उन्होंने सब प्रकार के पेड़–पौधों की सृष्टि की है और उन्हें पाल–पोसकर बड़ा करते हैं।
ऐसा लगता है कि भले ही प्रतिदिन परमेश्वर हमें मुफ्त में आशीष और अनुग्रह देते हैं, मगर हम उसका सही मूल्य न जानकर उसे मामूली बात समझते हैं। परमेश्वर की गहरी पूर्वयोजना का एहसास करते हुए और हर समय परमेश्वर को धन्यवाद देते हुए, हमें हमेशा अपनी इच्छा और विचार के बजाय परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना चाहिए।
वह जिसका बालक के समान विश्वास है, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहता है
जब आप दूसरों को यह बताते हैं, “यह मेरी इच्छा के अनुसार हो,” तब इसका मतलब यह है कि उन्हें मेरी इच्छा का पालन करना चाहिए। लेकिन जब आप कहते हैं, “पिता की इच्छा के अनुसार हो,” तब इसका मतलब यह है कि आप परमेश्वर की इच्छा का पालन करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ज्यादातर लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन करने की कोशिश करने के बजाय, अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और चाहते हैं कि उनके आसपास के लोग उनकी इच्छा का पालन करें। हालांकि इससे उनकी आत्माओं को कोई फायदा नहीं होता, लेकिन वे आसानी से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने की गलती कर बैठते हैं।
अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने का सबसे प्रमुख कारण है, लालच। जब हम अपनी इच्छा और लालसाओं का पालन न करके पिता की इच्छा का पालन करें, तब हम कह सकते हैं कि हमने पूरी तरह से नई वाचा के मार्ग का एहसास किया है। अपने जीवन में जब हमें अपनी इच्छा और परमेश्वर की इच्छा में से किसी एक को चुनना है, तब हमें किसको चुनना चाहिए? परमेश्वर क्या चाहते हैं, हम कौन से मार्ग पर चलें? आइए हम इसे बाइबल के द्वारा देखें।
1कुर 13:11 जब मैं बालक था, तो मैं बालकों के समान बोलता था, बालकों का सा मन था, बालकों की सी समझ थी; परन्तु सियाना हो गया तो बालकों की बातें छोड़ दीं।
बाइबल ने कई बार बालक को विन्रमता और आज्ञाकारिता के प्रतीक के रूप में वर्णित किया। लेकिन ऊपर की आयत में “एक बालक” सकारात्मक ढंग से वर्णित नहीं किया गया। ज्यादातर बच्चे स्वार्थी होते हैं; वे दूसरों की स्थिति को ध्यान में नहीं रखते और बस अपनी लालसा को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं। जब वे भूखे होते हैं, वे माता के दूध के लिए रोने लगते हैं। जब उन्हें अपना मनपसंद खिलौना, कपड़ा या कुछ खाना चाहिए होता, तो उसी वक्त वे अपने माता–पिता से उसे खरीदने के लिए बार–बार फरमाइशें करते हैं, और जब माता–पिता तुरन्त उसे नहीं खरीदते, तब वे पीछे पड़े रहते हैं और उनके खरीदने तक उन्हें परेशान करते हैं। इस तरह, अपने माता–पिता के दिल को दुखाकर भी, वे जो चाहते हैं उसे पाने की कोशिश करते हैं। वे अपने माता–पिता से सब कुछ अपनी इच्छा के अनुसार करने के लिए कहते हैं।
जब हम बालक थे, तो हम बालकों के समान बोलते थे, बालकों का सा मन था, बालकों की सी समझ थी, परन्तु जब बड़े होकर सियाने हो गए, हमने बालकों की बातें छोड़ दीं। जब लोग वयस्क हो जाते हैं, तब अपनी मांग पूरी करने के लिए माता–पिता को तंग–परेशान करने जैसे अपने पिछले व्यवहारों पर वे शर्म और दोषी महसूस करते हैं।
हमारा विश्वास बालकों का सा नहीं होना चाहिए। बालकों को प्रौढ़ होने तक लगातार बड़ा होना चाहिए।
इब्र 5:13–14 क्योंकि दूध पीनेवाले बच्चे को तो धर्म के वचन की पहिचान नहीं होती, क्योंकि वह बालक है। पर अन्न सयानों के लिये है, जिनकी ज्ञानेन्द्रियां अभ्यास करते–करते भले–बुरे में भेद करने में निपुण हो गई हैं।
भले ही एक व्यक्ति लम्बे समय से विश्वास का जीवन जीता है, लेकिन यदि वह बाइबल की शिक्षाओं को सिर्फ सुनने तक ही सीमित रहता है और उसे मानना नहीं चाहता, तो वह एक दूध पीनेवाले बच्चे के समान है जिसे धर्म के वचन की पहिचान नहीं होती। ऐसा व्यक्ति हमेशा बालक के समान सोचता और समझता है।
अपने विश्वास के जीवन में अब तक यदि हमने यह चाहा कि हमारे आसपास के लोग केवल हमारे अनुकूल चलें, तब हमें ऐसी बालकों की बातों को दूर फेंक देना चाहिए और भले–बुरे में पहचान करने के लिए अपनी ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करते हुए सही विश्वास के साथ पिता की इच्छा का पालन करने के लिए पर्याप्त परिपक्व बनना चाहिए। यीशु मसीह ने क्रूस पर मर जाने के अन्तिम पल तक पिता की इच्छा का पालन किया। मसीह का यह उदाहरण हमारे लिए एक अच्छा उदाहरण है।
प्रौढ़ विश्वासी जो पिता की इच्छा का पालन करते हैं
2,000 वर्ष पहले परमेश्वर यीशु के नाम से इस पृथ्वी पर आए। जब वह इस पृथ्वी पर शरीर पहनकर आए, उन्होंने हमें प्रौढ़ संतान के रूप में कैसे पिता परमेश्वर और माता परमेश्वर का आदर करना चाहिए, इसका उदाहरण दिखाया।
लूक 22:42–44 “हे पिता, यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले, तौभी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो।” तब स्वर्ग से एक दूत उसको दिखाई दिया जो उसे सामथ्र्य देता था। वह अत्यन्त संकट में व्याकुल होकर और भी हार्दिक वेदना से प्रार्थना करने लगा; और उसका पसीना मानो लहू की बड़ी बड़ी बूंदों के समान भूमि पर गिर रहा था।
लूका के 22वें अध्याय में यह दृश्य दिखाया गया जहां यीशु ने फसह का पर्व मनाने के बाद रात को जैतून पहाड़ पर प्रार्थना की। यीशु की प्रार्थना में ये अभिव्यक्तियां हैं – “मेरी इच्छा” और “पिता की इच्छा।” यीशु पहले से ही जानते थे कि उन्हें अगले दिन क्रूस पर दुख भोगना पड़ेगा, लेकिन उन्होंने अपनी इच्छा नहीं, लेकिन सिर्फ पिता की इच्छा पूरी होने के लिए प्रार्थना की।
यीशु मूल रूप से परमेश्वर हैं। फिर भी वह शरीर में पृथ्वी पर आए और अपने आप को पुत्र की जगह रखते हुए परमेश्वर को इस प्रकार की प्रार्थना अर्पित की। यह सब हमें उदाहरण दिखाने के लिए था।(यूह 13:15)
हम अब सिय्योन में निवास कर रहे हैं जहां स्वर्गीय पिता और माता हमारे साथ हैं और हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। लेकिन हमें अभी भी अपने दैनिक जीवन के कुछ पहलुओं में अपने आपको निखारने की आवश्यकता है। यद्यपि हम जानते हैं कि हमें पिता और माता की इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहिए, लेकिन यदि हम अपनी इच्छा को अधिक प्रकट करें और बालकों की तरह परमेश्वर से सिर्फ अपनी लालसा और सिर्फ अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए आग्रह करें, तो यह इसका सबूत होगा कि हम अभी तक बालकों के समान सोचने वाले हैं और सम्पूर्ण वाले नहीं बने हैं।
अब से हमें वयस्क सन्तान बननी चाहिए। जब हम प्रार्थना करें, हमें अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करने के बजाय, उन मसीह के उदाहरण का पालन करते हुए जो पिता की इच्छा पर मृत्यु तक आज्ञाकारी रहे थे, इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए कि हम हमेशा पिता की इच्छा के अनुसार कार्य करें। क्या होगा यदि एक वयस्क आदमी एक बच्चे के समान बर्ताव और बातें करें। लोग उसे अजीब तरह से देखेंगे। आत्मिक रूप से भी ऐसा ही है। हम क्या केवल इस कारण से खुद–ब–खुद वयस्क बन जाते हैं कि हमने बहुत लम्बे समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है? हमें बालकों के समान बोलने, सोचने, इच्छा करने जैसी बालकों की बातों को छोड़ना चाहिए। सिर्फ तब ही हम वयस्क बन सकते हैं।
परमेश्वर के लोग जहां कहीं मेम्ना जाता है उसके पीछे हो लेते हैं
प्रेरित यूहन्ना ने इसे दर्शन में देखा कि परमेश्वर अनन्त उद्धार के मार्ग की ओर उन लोगों की अगुवाई करते हैं जो कहीं भी परमेश्वर की इच्छा का पालन करते हैं।
प्रक 14:4 ये वे हैं जो स्त्रियों के साथ अशुद्ध नहीं हुए, पर कुंवारे हैं: ये वे ही हैं कि जहां कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं: ये तो परमेश्वर के निमित्त पहले फल होने के लिये मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं।
1,44,000 वे लोग हैं जो जहां कहीं मेम्ना जाता है उसके पीछे हो लेते हैं। उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो मेम्ने के आगे जाकर दूसरों से अपनी इच्छा का पालन कराता है।
वे अपनी इच्छा पूरी करवाने के लिए क्यों जिद्द नहीं करते? क्योंकि वे आत्मिक रूप से वयस्क लोग हैं जिनकी ज्ञानेन्द्रियां अभ्यास करते–करते भले–बुरे में भेद करने में निपुण हो गई हैं। यदि वे अपने मार्ग पर चलने के लिए जिद्द करें, तो उनका मार्ग 1,44,000 मार्गों में बंट जाएगा। लेकिन वे पिता की इच्छा का पालन करते हैं और इससे वे सभी एक बन सकते हैं। इस प्रकार जब हम पिता और माता की इच्छा के प्रति पूरी तरह आज्ञाकारी होंगे, तब सुसमाचार पूरे संसार में जल्द ही प्रचार किया जाएगा।
2कुर 10:4–6 क्योंकि हमारी लड़ाई के हथियार शारीरिक नहीं, पर गढ़ों को ढा देने के लिये परमेश्वर के द्वारा सामर्थी हैं। इसलिए हम कल्पनाओं का और हर एक ऊंची बात का, जो परमेश्वर की पहिचान के विरोध में उठती है, खण्डन करते हैं; और हर एक भावना को कैद करके मसीह का आज्ञाकारी बना देते हैं, और तैयार रहते हैं कि जब तुम्हारा आज्ञापालन पूरा हो जाए, तो हर एक प्रकार के आज्ञा–उल्लंघन को दण्डित करें।
परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी रहने का मतलब है, अपनी इच्छा नहीं, पर पिता की इच्छा का पालन करने का अपना निश्चय प्रकट करना। मैं विश्वास करता हूं कि जब हम सभी परमेश्वर की इच्छा का पालन करने में पर्याप्त प्रौढ़ बन जाएंगे और आत्मिक रूप से वयस्कों के समान सोचेंगे, तब सुसमाचार का कार्य पूरा हो जाएगा।
बच्चे हमेशा अपने माता–पिता से अपनी जरूरतों और अभिलाषा को पूरा करने के लिए बार–बार अनुरोध करते हैं। उनकी माता क्या व्यस्त है या भूखी है या थकी हुई है, इसकी परवाह किए बिना वे दूध के लिए रोते हैं। वे जो जंगल में नष्ट हो गए, बालकों के समान बहुत नासमझ थे। वे परमेश्वर से अपनी सभी जरूरतों को संतुष्ट करने के लिए अनुरोध करते थे। वे पीने का पानी और भोजन न होने के कारण कुड़कुड़ाते थे। यदि वे प्रौढ़ होते, तो वे इन सभी बातों को धैर्य के साथ सहते थे। जंगल में जब बच्चों को प्यास लगती है, तब वे पानी के लिए लगातार रोते रहते हैं, लेकिन वयस्क तब तक प्यास को सहते हैं जब तक उन्हें पानी न मिल जाए। हमें आत्मिक रूप से अब और अधिक बालक नहीं रहना चाहिए। यदि हमारा विश्वास पिता की इच्छा का पालन करने के लिए पर्याप्त प्रौढ़ न हो, तो अंत में हम भी जंगल में इस्राएलियों के समान नष्ट हो जाएंगे।
अपनी दिनचर्या समाप्त करते समय कृपया अपने बारे में चिंतन कीजिए। यदि आप अपने आपसे यह प्रश्न पूछें कि, ‘क्या आज मैंने अपनी इच्छा के अनुसार कार्य किया? या फिर मैंने पिता और माता की इच्छा के अनुसार कार्य करने की कोशिश की?’ तो आप यह जान पाएंगे कि आपका विश्वास बालकों का सा है, या फिर उन वयस्कों का सा है जो ठोस आहार को पचा सकते हैं और कहीं भी परमेश्वर का पालन कर सकते हैं।
बाइबल कहती है कि जब हमारा आज्ञापालन पूरा हो जाए, तो हर एक प्रकार के आज्ञा–उल्लंघन को दण्डित किया जाएगा। हमें नई वाचा के द्वारा दुबारा नया जन्म लेना चाहिए। जो नए सिरे से जन्मे हैं और पिता की इच्छा पालन करते हैं, वे स्वर्ग के राज्य को देख सकेंगे।(यूह 3:3; मत 7:21)
1कुर 10:12 इसलिए जो समझता है, “मैं स्थिर हूं,” वह चौकस रहे कि कहीं गिर न पड़े।
स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए, हमारे पास प्रौढ़ विश्वास होना चाहिए। इसलिए बाइबल कहती है कि, “जो समझता है, ‘मैं स्थिर हूं,’ वह चौकस रहे कि कहीं गिर न पड़े।” हमें अपने–अपने अंदर झांककर देखने की आवश्यकता है कि क्या हम अभी भी एक बालक की मानसिकता से अपने मार्ग के लिए जिद्द तो नहीं कर रहे हैं, और हमें अपनी इच्छा के अनुसार नहीं, परन्तु पिता की इच्छा के अनुसार जीवन जीने के लिए प्रौढ़ विश्वास रखना चाहिए।
सारी सृष्टियों का सिद्धान्त और आज्ञापालन
एक बार मैंने एक निबंध को पढ़ा। उसमें ऐसा ही एक वाक्य था:
“पेड़ अपनी जगहों को जानते हैं और अपनी दी हुई परिस्थितियों से संतुष्ट रहते हैं। वे कभी भी पेड़ के रूप में पैदा होने की शिकायत नहीं करते और कभी ऐसा नहीं कहते कि, ‘क्यों मुझे उस जगह में नहीं, बल्कि इस जगह में बोया गया है?’ ”
वे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट होते हैं। चाहे आप एक एकांत द्वीप पर एक देवदार का पेड़ लगाएं, फिर भी पेड़ यह कहकर दूसरों को दोष नहीं देता कि मैं अकेलापन महसूस करता हूं। हर पेड़ चाहे वह एक बंजर भूमि पर बोया जाए या एक उपजाऊ भूमि पर बोया जाए, अपनी जगह पर संतुष्ट होता है। यदि वह देवदार का पेड़ हो, तो वह देवदार का पेड़ होने से, और यदि वह एजलिया का फूल हो, वह एजलिया का फूल होने से, और यदि वह फोरसाइथिया का फूल हो, वह फोरसाइथिया का फूल होने से संतुष्ट होता है। वह किस किस्म का है, कभी इस बात पर शिकायत नहीं करता।
पेड़–पौधे भी, पक्षी भी और मछलियां भी कभी शिकायत नहीं करते। प्रकृति की सारी वस्तुएं परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप जी रही हैं। इस प्रकार आज्ञापालन का अर्थ है, अपने वातावरण का विरोध किए बिना प्रकृति के सहज सिद्धांत का पालन करना। जो परमेश्वर हमसे चाहते हैं, वह अंधविश्वास या अंधानुकरण नहीं, परन्तु सच्चा आज्ञापालन है। परमेश्वर चाहते हैं कि हम सही रूप से इसका एहसास करें कि क्यों हमें उनकी इच्छा का पालन करना चाहिए और क्यों उन पर विश्वास करना चाहिए, ताकि हम जहां कहीं परमेश्वर जाएं उनका पालन कर सकें।
यदि हम बालकों के समान सोचते, बालकों के समान बोलते, और बालकों के समान इच्छा रखते हैं, तो पिता की इच्छा का पालन करना आसान नहीं है। इसलिए हमें प्रयास करने की जरूरत है। आज्ञापालन एक सद्गुण है जिसे हमें नई वाचा के अन्दर अपने पास रखना चाहिए। जब हम पिता की इच्छा का पालन करते हैं, सिर्फ तब ही हमें यह गवाही दी जाएगी कि हम वे हैं जो जहां कहीं मेम्ना जाता है उसके पीछे हो लेते हैं और मनुष्यों में से मोल लिए गए हैं।
उचित मात्रा में बारिश, धूप, पोषित मिट्टी, अनेक किस्म के बीज... क्या इन सभी चीजों के द्वारा, जो परमेश्वर हमें देते हैं, हम अपना भोजन नहीं पाते? परमेश्वर के बिना हम जी नहीं सकते, और सब कुछ जो हमारे पास है, परमेश्वर से आता है।
हमारे पास परमेश्वर को पहचानने के लिए आत्मिक ज्ञानेन्द्रियां होनी चाहिए। आइए हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को भले–बुरे में भेद करने के लिए प्रशिक्षित करने के द्वारा आत्मिक रूप से प्रौढ़ बनें, ताकि हम अपने रोजमर्रा के जीवन में पिता और माता की इच्छा का पालन कर सकें।
1कुर 4:7 क्योंकि तुझ में और दूसरे में कौन भेद करता है? और तेरे पास क्या है जो तू ने (दूसरे से) नहीं पाया? और जब कि तू ने (दूसरे से) पाया है, तो ऐसा घमण्ड क्यों करता है कि मानों नही पाया?
जरूर याद रखिए कि जो कुछ भी हमारे पास है वह परमेश्वर की ओर से है। यदि परमेश्वर अभी सूर्य को बुझा दें, मानव जाति लुप्त हो जाएगी। यदि परमेश्वर सिर्फ कुछ हफ्तों तक आकाश में नल की टोंटी बन्द करें, पृथ्वी सूखे से पीड़ित हो जाएगी। चाहे कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र में कितना भी माहिर क्यों न हो, उसे अवश्य ही यह एहसास करना चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर में संभव है।
आइए हम किसी भी चीज के लिए डींग न मारें, लेकिन सिर्फ परमेश्वर की बड़ाई करें। आइए हम अपने अंदर झांककर देखें कि हम अपने विश्वास के जीवन में अपनी इच्छा का अनुसरण कर रहे हैं या पिता की इच्छा का अनुसरण कर रहे हैं। यदि हम बालकों के विश्वास के साथ अपनी इच्छा के अनुसार चलने की जिद्द पर अड़े रहते हैं, तो आइए हम बालकों की बातों को दूर फेंक दें, तब ही हम प्रौढ़ और सम्पूर्ण वाले बन सकते हैं। मैं आप सभी से पवित्र आत्मा और दुल्हिन, यानी हमारे आत्मिक पिता और माता की इच्छा को खोजने और प्रौढ़ विश्वास के साथ उनकी इच्छा का पालन करने के लिए निवेदन करता हूं ।