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मनुष्य, मसीह यीशु

आजकल हम जो मसीह का प्रचार कर रहे हैं, प्रथम चर्च के जैसी स्थिति में कभी-कभी पड़ते हैं। आइए हम देखते हैं, मसीह के विषय में जो इस धरती पर शरीर पहन कर आया, प्रथम चर्च के सुसमाचारक कैसे साक्षी देते और सुसमाचार का प्रचार करते थे? और उस समय के धार्मिक नेता किस बात पर अत्याचार करते थे?
आइए हम विस्तार से उनके बारे में जांच करें जो स्वर्ग में जाते हैं और जिन्हें नरक जाना पड़ता है। इसके द्वारा हमें अनुग्रहमय विश्वास लेना है ताकि हम परमेश्वर के न्याय करने आते समय उससे प्रशंसा पा सकें।


मसीह यीशु मनुष्य था



तीम 2:4-5 "जो यह चाहता है कि सब लोग उद्धार प्राप्त करें और सत्य को जानें। क्योंकि परमेश्वर एक ही है और परमेश्वर तथा मनुष्यों के बीच एक ही मध्यस्थ भी है, अर्थात्‌ मसीह यीशु, जो मनुष्य है।"

पौलुस ने इस पत्र में जिसे तीमुथियुस को भेजा, जोर दे रहा है कि यीशु मनुष्य है। "परमेश्वर एक ही है और परमेश्वर तथा मनुष्यों के बीच एक ही मध्यस्थ भी है, अर्थात्‌ मसीह यीशु है", यीशु के पीछे विशेषण "जो मनुष्य है" जोड़ा। उस समय के धार्मिक लोगों को पूर्व विचार था कि यदि मसीह, यानी पुत्र परमेश्वर इस धरती पर आता तब शरीर नहीं पर आत्मिक रूप से कार्य करेंगे। उनके विचार ने एक गलती को पैदा किया कि परमेश्वर को जो कि सर्वशक्तिमान है, योग्यता नहीं है कि हमारे समान मनुष्य के रूप में हो सकता है। इसी कारण उन्होंने इस धरती पर आए यीशु से विद्रोह किया और प्रथम चर्च के ईसाइयों को बहुत सताया।
लेकिन सही विश्वास लिए प्रेरितों ने निर्भयता से साक्षी दी कि प्रत्येक आत्मा जो नहीं मानती कि यीशु शरीर में धरती पर आया वह मसीह-विरोधी की आत्मा है और शैतान की आत्मा ली है।

यूह 4:2-3 "परमेश्वर के आत्मा को तुम इस से जान सकते हो: प्रत्येक आत्मा जो यह मानती है कि यीशु मसीह देह-धारण कर के आया है, वह परमेश्वर की ओर से है: और प्रत्येक आत्मा जो यीशु को नहीं मानती वह परमेश्वर की ओर से नहीं है: यही तो मसीह-विरोधी की आत्मा है..."

प्रथम चर्च के संत और प्रेरितों ने इस पर साहस किया कि मसीह के धरती पर प्रकट होते समय अवश्य देहधारी होना है। परन्तु उस समय के धार्मिक नेताओं ने यह कहते हुए कि मसीह धरती पर देहधारी होकर बिल्कुल नहीं आ सकता, दोषी लगाई और आलोचना की।
प्रथम चर्च की स्थिति को और अधिक अध्ययन करने से आइए हम विचार करें कि प्रेरितों ने क्यों इस तरह वचन लिखा।

यूह 1:1-14 "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था।... वचन, जो अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण था, देहधारी हुआ, और हमारे बीच में निवास किया, और हमने उसकी ऐसी महिमा देखी जैसी पिता के एकलौते (यीशु) की महिमा।"

परमेश्वर ने जो आदि में वचन था, इस धरती पर आकर यीशु नाम का प्रयोग किया। जब यीशु स्वर्ग के राज्य का समाचार सुनाते हुए पापों की क्षमा और उद्धार पाने के सत्य की साक्षी देता था, लोग जिन्होंने सही विश्वास लिया था, इस मन से यीशु का पीछा करते थे कि यीशु परमेश्वर है।

फिलि 2:5-6 "अपने में वही स्वभाव रखो जो मसीह यीशु में था, जिसने परमेश्वर के स्वरूप में होते हुए भी..."

पौलुस प्रेरितों के प्रेरित से माना जाता है, उसके लिए यीशु जिसे उसने विश्वास किया और देखा, परमेश्वर था। उसे इस पर कोई संदेह था और पूर्ण विश्वास किया कि यीशु परमेश्वर है। और प्रेरित यूहन्ना ने भी जोर से साक्षी दी कि यीशु परमेश्वर है जो आदि में वचन था।
प्रेरित पौलुस और यूहन्ना ने आत्मिक तौर पर यीशु को देखा, जिससे महसूस और विश्वास किया कि यीशु परमेश्वर है। वे प्रथम चर्च के प्रतिनिधिक प्रेरित हैं, और उनके आदर्श विश्वास के कारण आजकल बहुत से लोगों से आदर पा रहे हैं। वे ही यीशु पर जो उस समय निरादर हुआ, विश्वास करके पालन करते और साक्षी देते थे। उस समय संसार के लोग यीशु को परमेश्वर नहीं बल्कि नासरत बढ़ई समझते थे, लेकिन प्रेरित उन लोगों से अलग विश्वास दिखाते थे।
प्रेरित पौलुस ने कुलुस्सियों के संतों को इस तथ्य की साक्षी दी कि यीशु सृष्टिकर्ता परमेश्वर है जिसने संसार में सब वस्तुओं की सृष्टि की।

कुल 1:15-16 "वह तो अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप तथा समस्त सृष्टि में पहिलौठा है। क्योंकि उसी में सब वस्तुओं की सृष्टि हुई, स्वर्ग की अथवा पृथ्वी की, दृश्य अथवा अदृश्य, सिंहासन अथवा साम्राज्य, शासन अथवा अधिकार-समस्त वस्तुएं उसी के द्वारा और उसी के लिए सृजी गई हैं।"

उस समय लोग यीशु को यह कह कर ठट्‌ठे में उड़ाते थे, "परमेश्वर कैसे मनुष्य हो सकता है", लेकिन प्रेरित पौलुस यीशु पर विश्वास करके पालन करता और साहसपूर्वक साक्षी देता था कि यीशु सृष्टिकर्ता परमेश्वर है जिसने संसार में सब वस्तुओं की सृष्टि की।
किसी युग में भी लोगों के दो समुह हैं, जो सत्य का पालन करता है और जो सत्य को बिगाड़ता और निन्दा करता है। यद्यपि लोग यीशु मसीह के प्रति सत्य पर अनेक बाधा और :कावट डालते थे तो भी प्रेरित पौलुस और प्रेरित यूहन्ना आदि, सभी सुसमाचार के पूर्वज यीशु पर पक्के विश्वास से साक्षी देते थे कि यीशु परमेश्वर है।


प्रेरितों के युग में लोगों ने यीशु का ईश्वरीय गुण नहीं जाना



उस समय फरीसी और शास्त्री आदि, सब धार्मिक अधिकारियों ने यीशु को इनकार किया और नकाराया पर प्रेरितों ने ऐसा व्यक्त करते हुए यीशु को स्वीकार किया, "उसी में सब वस्तुओं की सृष्टि हुई", "परमेश्वर के स्वरूप में होता है", "वह अदृश्य परमेश्वर का प्रतिरूप है", "जो सब के ऊपर युगानुयुग धन्य परमेश्वर है"।
उस समय यीशु पर विश्वास करना अति मुश्किल था। सूखी भूमि से निकली जड़ के समान यीशु में न रूप था, न सौंदर्य कि हम उसे देखते, न ही उसका स्वरूप ऐसा था कि हम उसको चाहते। इसलिए सुसमाचार जिसे यीशु ने धरती पर आकर सुनाया, उस समय के फरीसी, शास्त्री, और सब धार्मिक अधिकारियों की आंखों में झूठी शिक्षा के रूप में दिखाई देता था।
उस समय में परमेश्वर के प्रति प्रत्येक चढ़ावों में से जिसका प्रयोग बलिदान-रीति में किया जाता था, सब से मुख्य चढ़ावा पशु था। पशु ही आराधना में मुख्य वस्तु हुआ और लोग पशु को बलिदान करके उस लहू से परमेश्वर की आराधना करते थे। लेकिन इसके विपरित यीशु ने शिक्षा दी, "अब मैं आया हूं, इसलिए पशु के लहू की ज:रत नहीं है।', यह उस बलिदान-रीति से जिसे उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी मनाया, बिल्कुल अलग था। इसी कारण उन्होंने यीशु को अधर्मी कहा।
उन्होंने यह तथ्य नहीं जाना कि यीशु ही मसीह है। इसलिए उन्होंने परमेश्वर के धरती पर आकर किए गए उद्धार के कार्यों पर :कावट डाली और परमेश्वर के विरूद्ध दुष्ट बात से शाप देने की हिम्मत की।

यूह 10:30-33 "मैं और पिता एक हैं। यहूदियों ने उसे पथराव करने को फिर पत्थर उठाए। यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, "मैंने पिता की ओर से बहुत से अच्छे कार्य किए। उनमें से किसके लिए तुम मुझे पथराव कर रहे हो?" यहूदियों ने उसे उत्तर दिया, "हम अच्छे कार्य के लिए तुझे पथराव नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के करण, और इसलिए भी कि तू मनुष्य होकर अपने आपको परमेश्वर बताता है।"

उस समय के धार्मिक नेताओं ने इस कारण से यीशु पर अत्याचार किया कि मनुष्य होकर अपने आपको परमेश्वर बताता है। जैसे प्रेरित पौलुस ने यीशु को परमेश्वर का स्वरूप कहा और प्रेरित यूहन्ना ने यीशु को 'वचन परमेश्वर' कहा जो आदि में था, चेलों ने मसीह को सही तरीके से पहचान कर ग्रहण किया पर जो धर्म की प्रभुता लिए थे धार्मिक नेताओं का विचार अलग था।
उन्होंने सोचा कि परमेश्वर को भव्य, शानदार व महिमामय ज्योति में आना चाहिए, और इसका नकल भी मनुष्य नहीं कर सकता। लेकिन यीशु मनुष्य के रूप में आया और यह कहते हुए, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।", दुष्ट कार्य के वि:द्ध चेतावनी देता था। जब प्रेरितों ने यीशु को शरीर के रूप में आए देखा, उन्होंने सिर्फ एक मनुष्य सोचके उस से व्यवहार किया।
मसीह के शरीर धारण करके धरती पर आने के विषय में आजकल भी ईसाइयों को प्रतिरोधी भावना होती है और वे इस पर इनकार करते हैं। हमें जानना है कि यह पहले से प्रथम चर्च के इतिहास में भविष्यवाणी के रूप में दिखाया गया है। तब आइए हम देखें, जब 2 हज़ार साल पहले मसीह ने शरीर में आकर सुसमाचार सुनाया और अपने नाम पर विश्वास करने को सिखाया, किस तरह का गलत दोष यीशु पर मढ़ा।


यीशु मसीह को 'नासरियों का कुपन्थ' कहा गया



प्रे 24:1-16 "पांच दिन के पश्चात्‌ महायाजक हनन्याह कुछ प्राचीनों तथा तिरतुल्लुस नामक एक वकील को साथ लेकर आया, और उन्होंने राज्यपाल के सम्मुख पौलुस के वि:द्ध अभियोग लगाए।... बात यह है कि यह मनुष्य वास्तव में उपद्रवी है और संसार भर के सारे यहूदियों में फूट डालता है और नासरियों के कुपन्थ का नेता है। यहां तक कि इसने मन्दिर को भी भ्रष्ट करना चाहा, और तब हम ने इसे बन्दि बना लिया। जिन बातों के विषय में हम उस पर दोष लगाते हैं, यदि तू स्वयं उस से पूछताछ करे तो तुझे इन सब का निश्चय हो जाएगा।... जब राज्यपाल ने पौलुस को बोलने का संकेत किया, तो उसने उत्तर दिया... इन्होंने मुझे न तो मन्दिर में, न आराधनालय में और न ही नगर में कहीं किसी से वादविवाद करते अथवा दंगा करवाते पाया है, और न ही ये उन अभियोगों को जो अब मुझ पर लगाते हैं, तेरे सामने प्रमाणित कर सकते हैं। पर मैं तेरे सामने यह मान लेता हूं, कि जिस पन्थ को ये कुपन्थ कहते हैं उसी के अनुसार मैं अपने पूर्वजों के परमेश्वर की सेवा करता हूं, और जो बातें व्यवस्था के अनुकुल हैं और जो कुछ नबियों की पुस्तकों में लिखा है, उन सब पर विश्वास करता हूं। मैं परमेश्वर में यह आशा रखता हूं, जैसे ये स्वयं भी रखते हैं, कि निश्चय ही धर्मी और अधर्मी दोनों का पुन:त्थान होगा। इसलिए मैं भी परमेश्वर तथा मनुष्यों के समक्ष अपने विवेक को निर्दोष बनाए रखने का सदा प्रयास करता हूं।"

पौलुस पर अभियोग लगाने का कुछ कारण भी नहीं था पर धार्मिक नेताओं ने सिर्फ अपने मत से अलग होने के कारण पौलुस पर अभियोग लगाया। यह नहीं कि पौलुस अपराधी था। सिर्फ परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण दोष लगाया।
उस समय यीशु मसीह का सुसमाचार सारे यरूशलेम में, यहां तक कि उसके आसपास तक व्यापक रूप से फैलाया जाता था। उस समय के लोग नहीं मानते थे कि यीशु परमेश्वर का स्वरूप है। इसलिए उन्होंने यीशु पर 'नासरियों का कुपन्थ' कह कर दोष लगाया। सिर्फ यीशु को परमेश्वर के रूप में विश्वास करने के कारण धार्मिक नेताओं ने प्रेरित पौलुस को राज्यपाल के न्यायालय में खड़ा किया। एक समूह सिखाता था कि यीशु परमेश्वर है, और जिन्होंने पहले से धर्म का अधिकार लिया वे धार्मिक संघ हठ करते थे कि परमेश्वर मनुष्य नहीं हो सकता। इसलिए दोनों स्वाभाविक रूप से झगड़ा करते रहे।
वास्तव में आत्मिक तौर पर यह परमेश्वर और शैतान के बीच झगड़ा है। प्रेरित पौलुस न्यायालय में लाया गया, परन्तु यदि जब उसका पाप पूछा जाता था कि क्यों न्यायालय में वह लाया गया तब पौलुस से कोई पाप नहीं पाया जाता था। पौलुस सिर्फ यह सुनाता था कि यीशु परमेश्वर है और मृतकों में से जिलाया गया मसीह है, इसलिए जो यीशु पर विश्वास करे वह अनन्त मृत्यु को न चखेगा और अन्त में जिलाया जाएगा।
पौलुस ने बहस पर खुल कर कहा, "जिस पन्थ को ये कुपन्थ कहते हैं उसी के अनुसार"। लेकिन क्या यीशु को विश्वास करना कुपन्थ था? नहीं। आइए हम देखें, यीशु ने उन्हें क्या कहा जिन्होंने यीशु को नासरियों का कुपन्थ कहा?

मत 23:13-15 "हे पाखण्डी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! क्योंकि तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द कर देते हो। तुम न तो स्वयं प्रवेश करते हो और न ही प्रवेश करने वालों को भीतर जाने देते हो। हे पाखण्डी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक मनुष्य को अपने मत में लाने के लिए जल-थल में फिरते हो, और जब वह आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो।"

यीशु ने धार्मिक नेताओं को जो आदर पाते थे, कहा, "तुम पर हाय!"। वे लोगों को स्वर्ग जाने से रोकने के लिए हर प्रकार की :कावट डालते थे और लोगों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते थे। उन्होंने यीशु को संकेत करके कहा, "मनुष्य होकर कैसे परमेश्वर बताते हो!" और "अशिक्षित हो!", और वे हमेशा विश्वासियों का पीछा करते हुए यीशु के प्रति उनका विश्वास तोड़ने और स्वर्ग जाने का मौका दूर करने हर प्रकार की बाधाएं डालते थे।
वे रोकते थे कि इस धरती पर आए परमेश्वर को लोग ठीक रूप से पहचानें। इतना हीं नहीं, परमेश्वर के वि:द्ध करने के कार्य में दूसरों को आगे खड़ा करके दुष्ट काम करवाते थे, जिससे कि अपने से दूना नारकीय बना दें।
वे स्वर्ग में बिल्कुल नहीं जा सके। उनके जाने की जगह सिर्फ नरक ही थी। हनन्याह और तिरतुल्लुस, झूठे प्राचीन और उनके साथ में रहे सभी यहूदी..., वे नरक में दुख पाएंगे और उनकी यातना का धुआं युगानुगुग उठता रहेगा।

नया धर्म जो यीशु का प्रचार करता है



बाइबल कहती है कि मसीह उनके लिए जो उत्सुकता से उसके आने की प्रतीक्षा करते हैं, दूसरी बार प्रकट होगा। (इब्र 9:28) बाइबल की 66 पुस्तकों में सभी भविष्यवाणियों के द्वारा प्रमाण दे रहा है कि मसीह दूसरी बार प्रकट होगा। किन्तु आजकल धार्मिक अगुवे जिन्होंने पहले से ईसाई धर्म पर अधिकार लिया है, दूसरी बार आने वाले मसीह को ग्रहण कदापि नहीं करेंगे।
यीशु ने उसके प्रथम बार आने की स्थिति और दूसरी बार आने की स्थिति को पहले से जाना, इसलिए उसने कहा कि तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द कर देते हो, और तुम न तो स्वयं प्रवेश करते हो और न ही प्रवेश करने वालों को भीतर जाने देते हो, जिससे अपने से दूना नारकीय बना देते हो।
ऐसी स्थिति लगातार होती थी, इसलिए जहां कहीं भी सुसमाचार सुनाया जाता था वहां धार्मिक अगुवों से संघर्ष होता रहता था।

प्रे 5:26-28 "तब सिपाहियों के साथ कप्तान गया और बिना बल प्रयोग किए उन्हें ले आया, क्योंकि इन्हें लोगों से यह भय था कि कहीं वे हम पर पथराव न करें। जब ये ले आए तो महासभा के सामने उन्हें खड़ा कर दिया। तब महायाजक ने उनसे पूछा, "हमने तुम्हें कठोर आदेश दिया था कि तुम इस नाम से उपदेश न देना, फिर भी देखो, तुमने सारे यरूशलेम को अपने उपदेशों से भर दिया है, और तुम इस व्यक्ति की मृत्यु का लहू हमारे सिर पर मढ़ना चाहते हो।"

'यीशु ही परमेश्वर है', यह सत्य का सुसमाचार उस ज़माने में यहूदियों को बिल्कुल नया लगा और पहली बार प्रकट हुआ नया धर्म था। उन्होंने यह सत्य एक बार भी नहीं सुना था, इसलिए उनके बीच में बड़ा वादविवाद पैदा किया करता था।
लेकिन इस्राएलियों को जो धार्मिक अगुवों के भ्रष्टाचार और कपटाचार को घृणित करते थे, मसीह का सुसमाचार आत्मिक प्यास को बुझाने की ताज़ी वर्षा सा लगा और जीवन का जल था। इसी कारण जहां कहीं भी प्रेरितों के सुसमाचार का प्रचार किया जाता था वहां एक दिन में कभी 3 हजार और कभी 5 हजार व्यक्ति विश्वासी बनते थे।

प्रे 4:2-21 "इस बात से अत्यन्त क्रोधित थे कि वे लोगों को उपदेश दे रहे हैं और यीशु का उदाहरण देकर मृतकों के पुन:त्थान का प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने उन्हें पकड़ा और अगले दिन तक हवालात में रखा, क्योंकि संध्या हो चुकी थी। फिर भी वचन के सुनने वालों में से बहुत लोगों ने विश्वास किया और उनकी संख्या लगभग पांच हज़ार पु:षों की हो गई।...और कहने लगे, हम इन मनुष्यों से क्या करें? क्योंकि इनके द्वारा एक प्रत्यक्ष आश्चर्यकर्म हुआ है जो यरूशलेम के सब रहने वालों पर प्रकट है और हम उसे अस्वीकार नहीं कर सकते। परन्तु हम इन्हें धमकाएं कि वे किसी मनुष्य से इस नाम को लेकर फिर चर्चा न करें जिससे कि यह बात लोगों में और अधिक न फैले।" उन्होंने उन्हें बुलाकर आज्ञा दी कि यीशु का नाम लेकर न तो कोई चर्चा करें और न ही कोई शिक्षा दें। परन्तु पतरस और यूहन्ना ने उनको उत्तर दिया, "तुम ही न्याय करो: क्या परमेश्वर की दृष्टि में यह उचित है कि हम परमेश्वर की आज्ञा से बढ़कर तुम्हारी बात मानें? क्योंकि यह तो हमसे हो नहीं सकता कि जो हमने देखा और सुना है, उसे न कहें।" तब उन्होंने उनको और धमकाकर तथा दण्ड देने का कोई कारण न पाकर लोगों के भय के कारण छोड़ दिया"

अत्यन्त आश्चर्य घटना घटित हुई कि एक दिन में 5 हज़ार व्यक्तियों ने पछताया और यीशु को उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया। इस पर धार्मिक अगुवे बहुत चकित हुए। भ्रष्ट धार्मिक अगुवों को यह महत्वपूर्ण नहीं था कि लोग परमेश्वर को सही रूप से विश्वास करते हैं कि नहीं, मात्र उन्हें यह भय था कि अपने पद एंव प्रतिष्ठा गिर रहे हैं।
इसलिए वे संतों को पकड़ कर धमकाया, भयभीत किया, बन्दीगृह में रखा और कोड़े से मारा करते थे। इस तरह से विविध साधनों का प्रयोग करते हुए भी संतों की सख्या और अधिक बढ़ जाती थी। चाहे झूठी बातें बनाकर फैलाते हो, तो भी प्रथम चर्च के संत जिन्होंने सत्य की अभािलाषा की और स्वर्ग की आशा की, चुपचाप न बैठ सके।
सुसमाचार का प्रचार सामरिया में, यहां तक कि पृथ्वी के छोर तक फैलाया गया। वे किसी रीति से भी रोकते हो, परमेश्वर का कार्य बिल्कुल नहीं रोक सकते।


यातना एंव अत्याचार में से भी फैलाया जाता सुसमाचार



नहेमायाह के मंदिर का पुनर्निर्माण करते समय भी सम्बल्लत और तोबिय्याह ने अगुवे होकर परमेश्वर के मंदिर का पुनर्निर्माण करने में बहुत दोष लगाया था। ऐसा ठट्‌ठा करते हुए कि जो कुछ वे बना रहे हैं, यदि कोई गीदड़ भी उस पर चढ़े तो वह उनकी पत्थर की शहरपनाह को तोड़ डालेगा, उन्होंने यहूदियों के दिल को बहुत दु:खाया। लेकिन यहूदा के समस्त अधिकारियों और अगुवों ने सब मनों को एक किया, और रात्रि को भी पहरा देते हुए जब उन्होंने काम किया, एक हाथ में ढाल एंव भाला लिए और एक हाथ में औजार लिए मंदिर का पुनर्निर्माण करने के साथ दुश्मानों से युद्ध किया था। (नहे 4:1-23)
जब मंदिर का पुनर्निर्माण पूरा हुआ, सारे दुश्मान घबरा गए थे। वे इस तथ्य से थरथराते और आश्चर्य होते थे कि मनुष्य से इसका निर्माण किया जाता तो बीच में खत्म हुआ होता लेकिन यह पूरा हुआ, क्योंकि परमेश्वर उनके साथ होना अवश्य है। (नहे 6:15-16)
अब प्रेरित कहां रहते हैं जिन्होंने अत्याचार और मुश्किल से भी मसीह के प्रति विश्वास को दृढ़ किया? वे अनन्त स्वर्ग में परमेश्वर से शान्ति और सांत्वना पा रहे हैं जो वर्णन से बाहर है। प्रेरित पौलुस जिसने निर्भीकता से कहा कि यीशु परमेश्वर है, अब कहां रहता है? वह महिमामय स्वर्ग में जो संसार के लोग न तो देख सके, न ही सुन सके, और न मन में सोच सके, आराम कर रहा है। परन्तु इसके विपरित जो पौलुस को 'नासरियों के कुपन्थ का नेता' कहते थे महायाजक और उस समय के धार्मिक अगुवे अब कहां रहते होंगे?


आत्मिक लड़ाई पर विजय का वादा



आजकल यदि लोगों को स्वर्ग की आशा होती तो उन्हें लौकिक और भौतिक चाह से भरी और बाइबल के अनुसार नहीं चलती इस पीढ़ी में सत्य ढूंढ़ना आवश्यक है, फिर भी वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। यह स्थिति प्रथम चर्च के इतिहास के द्वारा दिखाई गई है।
आत्मिक मंदिर की सामग्री से दर्शाए गए परमेश्वर के लोग जहां पवित्र आत्मा और दुल्हिन की आवाज़ सुनाई देती है वहां सत्य की ज्योति देखकर पश्चात्ताप करते हैं और मसीह को ग्रहण करते हैं। भविष्यवाणी के अनुसार प्रथम चर्च के समय जो अनुचित घटना हुई वह इस युग में भी एक जैसी घटित हो रही है। परन्तु इस स्थिति में भी बाइबल के द्वारा परमेश्वर स्वर्ग जाने वालों को शान्ति और प्रोत्साहन दे रहा है।

प्रक 12:17 "और अजगर स्त्री पर क्रोधित हुआ: और उसकी शेष सन्तान से जो परमेश्वर की आज्ञा मानती है, और यीशु की गवाही पर स्थिर है, युद्ध करने निकला। और वह समुद्र की बालू पर जा खड़ा हुआ।"

बाइबल कहती है कि अजगर स्त्री की शेष सन्तान से युद्ध करने समुद्र की बालू पर, यानी मानव समाज पर खड़ा हुआ। इसलिए आत्मिक युद्ध अवश्य किया जाना है। और प्रकाशितवाक्य 18 में लिखा है कि परमेश्वर जो अजगर पर विजयी हुआ, सर्वशक्तिमान है। इस तरह प्रेरित यूहन्ना ने युद्ध के शुरू से अन्त तक देख लिया। युद्ध के अन्त में शत्रु शैतान पकड़वाए जाकर अग्नि और गंधक की झील में डाले जाएंगे। तभी आत्मिक युद्ध का सामप्त होगा।


आदरणीय जीवन का सफ़र और विश्वास का मार्ग



सचमुच जीवन अल्पकालिक है। 10 सालों की अवधि को हम दस बार भी नहीं जी पाते।

भज 90:10 "हमारी आयु के वर्ष सत्तर तो होते हैं: चाहे बल के कारण अस्सी भी हो जाएं फिर भी उनके घमण्ड का आधार कष्ट और शोक ही है, क्योंकि यह शीघ्र समाप्त हो जाती है और हम जाते रहते हैं।"

कितना जीवनकाल अल्प है! इस अल्प अवधि को हमें सही ढंग से व्यतीत करना चाहिए। शत्रु शैतान के :कावट डालने और हमारे सामने कठिनाइयां होने के बावजूद हमें सत्य के मार्ग पर चलना है। हमारे आसपास सत्य की निन्दा की जाने से या बाधा लगाई जाने से यदि झूठ से मेल खाकर विचलित मार्ग पर जाते तो यह परमेश्वर की इच्छा नहीं है।
जैसे प्रेरित और विश्वास के पूर्वजों ने दिखाया वैसे हम अनुग्रहमय विश्वास के मार्ग पर अन्त तक चलेंगे। आइए हम पौलुस के और पतरस के और प्रेरित यूहन्ना के विश्वास के समान महान विश्वास लिए परमेश्वर की सन्तान बनें जो अनन्त स्वर्ग, महिमामय राज्य में परमेश्वर और हजारों और लाखों स्वर्गदूतों के साथ युगानुयुग हर सुख से रहेंगे।
प्रथम चर्च के समय लोगों ने यीशु का कितना ठट्‌ठा एंव निन्दा की हो! इसलिए जब प्रेरितों ने पवित्र आत्मा से प्रेरणा पाकर बाइबल लिखी, यीशु के पीछे विशेषण "जो मनुष्य है" जोड़ा, और लिखा कि प्रत्येक आत्मा जो यीशु को नहीं मानती वह मसीह-विरोधी की आत्मा है। उस समय में प्रेरितों की स्थिति को जांच करते हुए हमें हमेशा याद दिलानी है कि हम इस युग में उद्धारकर्ता के रूप में आए पवित्र आत्मा परमेश्वर पर जो मनुष्य है, विश्वास किए बिना स्वर्ग बिल्कुल नहीं जा सकते। आइए हम सब पवित्र आत्मा परमेश्वर का नाम दूर दूर तक फैलाएं। आशा है कि आप सब स्वर्गीय सन्तान बनें जो उस नाम पर भरोसा करके अनन्त स्वर्ग में प्रवेश करेंगे।